ज़ख़्म पर चीरा / हेमन्त कुकरेती
ज़ख़्म पर चीरा डालकर निकाली जा चुकी है
अपने ही जीवकोषों से बनी गाँठ
अस्थि और मज्जा में बची हुई गन्दगी को जला देने के लिए
खौलता हुआ तेज़ाब-सा डाल दिया है रूई में लपेटकर
शान्त हो जाएगी जलन
झेलने की आदत डाल देते हैं घाव
ज़मीन है जिस्म के बाहर
वहाँ छिटक गये ख़ून के छींटे उसे छलका रहे हैं
सीमेण्ट जैसे कठोर चिकने मुख
विवर्ण हो गये हैं मास्क के नीचे
कराहटें अभी गूँज रही हैं
आत्मा के कण्ठ में बैठ गयी है आवाज़
कपड़े सूखे नहीं हैं पसीने से लथपथ
गीले हैं चोट की तरह: सूखेंगे खाल की तरह...
मुश्किल से सिला गया था घायल शरीर
फिर भी कितना कुछ बिखर गया
दर्द के बहाने हैं अनेक,
बहुत सारे रास्ते हैं प्राण निकलने के
भीगी पट्टियाँ लाचार हैं और अधिक रक्त रोकने से
पाथफाइण्डर मंगल की यातनाओं के चित्र भेज रहा है
नर्स की आँखों में है जीवित मशीन
मेरी बेचैनी का एक्स-रे उसके चेहरे पर छपा है
बाहर करुणा से भरे हैं मित्र या सहमी हुई शक्लें
पत्थर को भी भेद देती है नज़र-कहता है कोई
और भय में डूबा हुआ चेहरा देखकर
देखने लगता है दूसरी तरफ़
सताये हुए हैं सब
पीड़ा के मारे हुए लोग जब पूछते हैं-कैसे हो?
जु़बान पर चढ़ा हुआ-‘ठीक हूँ’-वाक्य टूट जाता है
सहने का पूरा अभ्यास नहीं है अभी
धीरे-धीरे आएगा
धीरे-धीरे भर जाएँगे कष्ट
धीरे-धीरे उनकी स्मृति मिटने को होगी कि
बार-बार खुल जाएँगे उनके टाँके
नहीं बचा सकते तो हँसते हुए सहना सिखा दो!
सहा नहीं जाता यह महादंश