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ज़ख्मे-दिल ताज़ा हुए, लौ दे उठीं तन्हाइयाँ / अनु जसरोटिया

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ज़ख्मे-दिल ताज़ा हुए, लौ दे उठीं तन्हाइयाँ
फिर लहू का ज़ायक़ा चखने लगीं पुरवाइयाँ

काम आती है जुनूँ की रहनुमाई इस जगह
चल नहीं सकतीं महब्बत में कभी दानाइयाँ

झूट छुप सकता नहीं तुम लाख पर्दे डाल दो
झूम कर अंगड़ाई लें गी एक दिन सच्चाइयाँ

आँच आने दी न हम ने उस की शोहरत पर कोई
सर झुका के सह गये बदनामियाँ, रुस्वाइयाँ

ऊँचा उठना हो जिन्हें उन के लिये ज़ीने बहुत
गिरने वालों के लिये मौजूद गहरी खाइयाँ

ऐसी भी कुछ हैं अभागिन लड़कियाँ इस शहर में
बज न पाईं जिन की शादी की कभी शहनाइयाँ

आ किसी दिन रूह में, दिल में समाने के लिये
याद करती हैं तुझे अब रूह की गहराइयाँ

नन्हे मुन्नों की जहाँ किलकारियाँ हों गूँजती
हम को तो लगती हैं प्यारी बस वही अंगनाइयाँ

अब नहीं बाक़ी कहीं अद्ले-जहाँगीरी यहाँ
अब नहीं होतीं ग़रीबों की कहीं शुनवाइयाँ

थक गई हैं अब निगाहें तेरा रस्ता देखते
छुट्टी ले के घर को आ जा मेरे सर के साइयाँ