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ज़ख्म सीता के हरे से रह गए / अनिमेष मुखर्जी

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ज़ख्म सीता के हरे से रह गए
लोग बस रावण जलाते रह गए

मंज़िलें हर मोड़ पर आई गईं
याद बस किस्से सफर के रह गए

ज़िंदगी भर साथ चलना था मगर
राह के मोड़ों पर अटके रह गए

तोड़नी थी हर रवायत कल जिन्हें
काफियों के साथ उलझे रह गए

बाढ़ पैरों से बहाकर ले गई
तान के छतरी खड़े से रह गए