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ज़बां खुली न कभी शरहे-दास्तां के लिए / रतन पंडोरवी

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 ज़बां खुली न कभी शरहे-दास्तां के लिए
खामोशियों ही मिरी कम नहीं बयां के लिए

जुनूँ करेगा कहां तक ये दश्त-पैमाई
ज़बीने-शौक़ तड़पती है आस्तां के लिए

हुजूमे-ग़म से खुला है ये राज़े-पिन्हानी
फुगां है मेरे लिए और मैं फुगां के लिए

क़लम का चाक है सीना शुरूए-उन्वां में
ये एहतिमाम है तशरीहे-दास्तां के लिए

अज़ीज़तर है हमें किस क़दर वतन की हवा
क़फ़स में ज़िंदा रहे शाखे-आशियाँ के लिए

ये बे-ख़ुदी मुझे पहुंचाएगी कहां आखिर
क़दम मकां से निकाले हैं ला-मकां के लिए

रहीने-रंज-ओ-अलम है 'रतन' मिरी हस्ती
बना चमन में नशेमन मगर ख़जां के लिए।