Last modified on 20 जुलाई 2013, at 17:02

ज़बान-ए-ख़ल्क पे आया तो इक फ़साना हुआ / 'वहीद' अख़्तर

ज़बान-ए-ख़ल्क पे आया तो इक फ़साना हुआ
वो लफ़्ज सौत ओ सदा से जो आशना न हुआ

बला-ए-जाँ भी है जाँ-बख़्ष भी है इश्‍क़-ए-बुताँ
अजल को उज्र मिला ज़ीस्त को बहाना हुआ

तिरी निगाह किरन थी तो मेरा दिल शबनम
तिरी निगाह से भी दिल का मोआमला न हुआ

ब-सद-ख़ुलूस रहा साथ ज़िंदगी भर का
मुक़ाबला भी ज़माने से दोस्ताना हुआ

सुना है बज़्म में तेरी है तजि़्करा मेरा
तिरी वफ़ा का तआरूफ़ भी ग़ाएबाना हुआ

हम ऐसे खो गए आग़ाज में ख़बर ही नहीं
कि बज़्म उठ गई कब ख़त्म कब फसाना हुआ

हर एक लम्हा किया क़र्ज़ ज़िंदगी का अदा
कुछ अपना हक़ भी था हम पर वही अदा न हुआ