भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़बान-ए-यार है अज़ बस कि / वली दक्कनी
Kavita Kosh से
ज़बान-ए-यार है अज़ बस कि यार-ए-ख़ामोशी
बहार-ए-ख़त में है बर जा बहार-ए-ख़ामोशी
स्याही ख़त-ए-शब रंग सूँ मुसव्वर-ए-नाज़
लिखा निगार के लब पर निगार-ए-ख़ामोशी
उठा है लश्कर-ए-अहल-ए-सुख़न में हैरत सूँ
ग़ुबार-ए-ख़त सूँ सनम के ग़ुबार-ए-ख़ामोशी
ज़हूर-ए-ख़त में किया है हया ने बस कि ज़हूर
यो दिल शिकार हुआ है शिकार-ए-ख़ामोशी
हमेशा लश्कर-ए-आफ़ात सूँ रहे महफ़ूज़
नसीब जिसको हुआ है हिसार-ए-ख़ामोशी
ग़ुरूर-ए-ज़र सूँ बजा है सुकूत-ए-बेमा'नी
कि बेसदा है सदा कोहिसार-ए-ख़ामोशी
'वली' निगाह कर उस ख़त-ए-सब्ज़ रंग कूँ आज
कि तौर-ए-नूर में है सब्ज़ा ज़ार-ए-ख़ामोशी