ज़बीं पे गर्द है चेहरा ख़राश में डूबा
हुआ ख़राब जो अपनी तलाश में डूबा
क़लम उठाया तो सर पर कुलाह-ए-कज न रही
ये शहर-यार भी फ़िक्र-ए-मआश में डूबा
झले है पंखा ये ज़ख़्मों पे कौन आठ पहर
मिला है मुझ को नफ़स इर्तआश में डूबा
इसे न क्यूँ तेरी दिलदारी-ए-नज़र कहिये
वो नीश्तर जो दिल-ए-पाश-पाश में डूबा
‘फ़ज़ा’ है ख़ालिक-ए-सुब्ह-ए-हयात फिर भी ग़रीब
कहाँ कहाँ न उफ़ुक़ की तलाश में डूबा