भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़माने की अदा है क़ाफ़िराना / सरवर आलम राज 'सरवर'
Kavita Kosh से
ज़माने की अदा है क़ाफ़िराना
जुदा मेरा है तर्ज़-ए-आशिक़ाना
तिरा ज़ौक़-ए-तलब न-महरिमाना
न आह-ए-शब ने सोज़-ए-शबाना
शबाब-ओ-शेर-ओ-सहबा-ए-मुहब्बत
बहुत याद आए हैं गुज़ारा ज़माना
बहुत नाज़ुक है हर शाख-ए-तमन्ना
बनाएँ हम कहाँ फिर आशियाना?
मकाँ जो है वो अक्स-ए-लामकाँ है
अगर तेरी नज़र हो आरिफ़ाना
मिरी आह-ओ-फुघान इक नई-नवाज़ी
मिरा हरफ़-ए-शिकायत शायराना
मुझे देखो, मिरी हालत न पूछो
मुझे आता नहीं बातें बनाना
उलझ कर रह गया मैं रोज़-ओ-शब में
समझ में कब यह आया ताना-बाना
न देखो इस तरह, मुझ को न देखो
बिखर जाऊँगा हो कर दाना-दाना
मुझे है हर किस पर खुद का धोका
यह दुनिया है के है आईनाखाना
निकालो राह अपनी आप “सरवर”
कभी दुनिया की बातों में न आना