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ज़माने को भले ही इश्क़ पागलपन सा लगता है / अलका मिश्रा

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ज़माने को भले ही इश्क़ पागलपन सा लगता है
मगर इक अजनबी मुझको मेरी धड़कन सा लगता है

महक अपनी लुटा देता है वो हर सू फ़ज़ाओं में
मोहबब्त से भरा हो दिल तो वो चन्दन सा लगता है

ये मौसम का असर है या के फिर है इश्क़ का जादू
वो रस्मन हाल पूछे, तो भी अपनापन सा लगता है

चुराकर दिल मेरा मुझसे चुराने लग गया आँखें
वो मेरी जान अब इस जान का दुश्मन सा लगता है

बहुत मग़रूर है, ज़ालिम है, पत्थर दिल भी है,लेकिन
न जाने क्यों मेरे जीने का वो कारन सा लगता है

किसी के वस्ल की बारिश की मुझमे है नमी इतनी
के अब तो हिज्र भी मुझको किसी सावन सा लगता है