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ज़मीं-ओ-आसमाँ मुमकिन है / इक़बाल
Kavita Kosh से
मुमकिन है के तु जिसको समझता है बहाराँ
औरों की निगाहों में वो मौसम हो ख़िज़ाँ का
है सिल-सिला एहवाल का हर लहजा दगरगूँ
अए सालेक-रह फ़िक्र न कर सूदो-ज़याँ का
शायद के ज़मीँ है वो किसी और जहाँ की
तू जिसको समझता है फ़लक अपने जहाँ का