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ज़मीं-ज़मीं गुनाह है सजे हुए गुलाब से / निश्तर ख़ानक़ाही
Kavita Kosh से
ज़मीं-ज़मीं गुनाह है सजे हुए गुलाब से
हज़ार बार उम्मतें* गुज़र चुकीं अज़ाब से
ये दिल में था कि आज शब बिताएँ अपने साथ हम
निकल-निकल के आ गई इबारतें किताब से
गुज़र रहा हूँ तिशना-लब* मैं ख़्वाब-ज़ारे जीस्त* से
मुझी में हैं बिछे हुए क़दम-क़दम सराब* से
मकाँ वहीं हैं शहर में, मगर मकीं* नहीं हैं वो
किसे ख़बर कहाँ गए, वो ख़ुश-बदन गुलाब से
लगा कि जिस्मों-रूह में भड़क उठी है आग फिर
जनम-जनम कि तिश्नगी बुझी कहाँ शराब से
1- उम्मतें--राष्ट्र
2- तिशना-लब--प्यास
3- ख़्वाब-ज़ारे जीस्त--जीवन के स्वप्नलोक से
4- सराब--बादल
5- मकीं--मकानों के निवासी