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ज़मीं के ज़ख़्म का मरहम नहीं क्या / कुमार नयन
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ज़मीं के ज़ख़्म का मरहम नहीं क्या
फ़लक की आंख होगी नम नहीं क्या।
हर इक शय आग बनकर जल रही है
कहीं इक क़तरा-ए-शबनम नहीं क्या।
पिएगी और क्या क्या ये सियासत
लहू बच्चों का कोई कम नहीं क्या।
बहुत से लोग मुझसे पूछते हैं
वतन में अपने ही अब हम नहीं क्या।
खुशी से आज भी क्यों जी रहा हूँ
मुझे ग़म होने का कुछ ग़म नहीं क्या।
लहू क्यों खोलता रहता है हरदम
सुकूं का अब कोई मौसम नहीं क्या।
कभी तन्हा नहीं मुझको समझना
मिरी ग़ज़लें मिरी हमदम नहीं क्या।
क़लम लेकर उतर जाऊं सड़क पर
अभी भी मां क़सम वो दम नहीं क्या।