भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़मीं को खा रही है आसमान की ख़्वाहिश / राम नाथ बेख़बर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज़मीं को खा रही है आसमान की ख़्वाहिश
उड़ान भर रही है पर उड़ान की ख़्वाहिश

भटक रहे हैं सभी शहरे-नौ के जंगल में
घरों को भूल गई है मकान की ख़्वाहिश

शिखर पे बैठ समंदर नसीब कैसे हो
नदी के मन में जगी है ढलान की ख़्वाहिश

कुचल रहे हैं जो फूलों को बदहवासी में
समझ न पायेंगे वो फूलदान की ख़्वाहिश

हमें भी जाना है दुनिया से चार काँधों पर
जहां में छोड़ के सारे जहान की ख़्वाहिश