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ज़मीं को खा रही है आसमान की ख़्वाहिश / राम नाथ बेख़बर
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ज़मीं को खा रही है आसमान की ख़्वाहिश
उड़ान भर रही है पर उड़ान की ख़्वाहिश
भटक रहे हैं सभी शहरे-नौ के जंगल में
घरों को भूल गई है मकान की ख़्वाहिश
शिखर पे बैठ समंदर नसीब कैसे हो
नदी के मन में जगी है ढलान की ख़्वाहिश
कुचल रहे हैं जो फूलों को बदहवासी में
समझ न पायेंगे वो फूलदान की ख़्वाहिश
हमें भी जाना है दुनिया से चार काँधों पर
जहां में छोड़ के सारे जहान की ख़्वाहिश