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ज़मीं को लाख जोतो वो कभी शिकवा नहीं करती / अभिनव अरुण

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ज़मीं को लाख जोतो वो कभी शिकवा नहीं करती
लुटा धन धान अपने नाम एक पौधा नहीं करती

उसे गिर गिर के उठने का हुनर भी ख़ूब आता है
दीये की लौ हवा के ज़ोर से टूटा नहीं करती

तमाशा देखने का शौक़ है इसको बहुत लेकिन,
ये जागी कौम है सिक्के कभी फेंका नहीं करती

भला क्यों तुम यहाँ अहदे वफ़ा की बात करते हो,
तवायफ़ एक की ख़ातिर कभी मुज़रा नहीं करती

गले मिलना, किसी से खुल के मिलना, उसकी फ़ितरत है,
नदी लेकिन किनारों से कोई वादा नहीं करती

कभी लोबान की ख़ुशबू को मुट्ठी में लिया तुमने,
इबादत भी बुतों का रास्ता देखा नहीं करती

मनाने के लिए उसको कई दोनें पहुँचते हैं,
सड़क की कोई पगली रात को फ़ाका नहीं करती

समझ वालों के पत्थर जब भी उसके पास जाते हैं,
वो पगली खिलखिलाती है कोई शिकवा नहीं करती

कोई अपना दिखे तो और भी अनजान बनती है,
मुहब्बत में ज़माने के लिए किस्सा नहीं करती

नियति को मानकर गंगा सभी के पाप धोती है,
वो ख़ुद के पाक़ होने का कोई दावा नहीं करती

ठगे जाओगे तुम बाज़ार से वाक़िफ़ नहीं अभिनव,
तुम्हारे सामने वो इसलिए चेहरा नहीं करती