ज़मीं ता आसमाँ जश्न-ए-चराग़ाँ हो रहा है / शहबाज़ 'नदीम' ज़ियाई
ज़मीं ता आसमाँ जश्न-ए-चराग़ाँ हो रहा है
ज़हे-क़िस्मत ज़ुहूर-ए-मैहर-ए-ताबाँ हो रहा है
ये कौन अंदर ही अंदर बुझ रहा है ख़ामशी से
ये किस का दिल असीर-ए-दाम-ए-गिर्यां हो रहा है
जिस मैं भूलने की कोशिशों में हूँ मुसलसल
वो पैकर और भी नज़्द-ए-राग-ए-जाँ हो रहा है
सर-ए-मंज़र हुनर कोई नहीं बाज़ी-गरी का
ये मंज़र देखने वाला भी हैराँ हो रहा है
किसी तूफ़ान की आमद का अंदेशा है मुझ को
ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे दिल परेशाँ हो रहा है
सिमटता जा रहा है वक़्त का सैलाब ख़ुद में
वो इक ताबिंदा मंज़र ख़ुद ही पिन्हाँ हो रहा है
तबस्सुम की नुमाइश भी रही ना-काम आख़िर
कि अब चेहरे से तेरे ग़म नुमायाँ हो रहा है
मुसलसल ख़्वाहिशें मफक़ूद होती जा रही हैं
मुसलसल लाला-ज़ार-ए-दिल बयाबाँ हो रहा है
ये क्या शय मुझ में रौशन है मैं हैराँ हूँ कि ‘शहबाज़’
हिसार-ए-जाँ में कुछ दिन से चराग़ाँ हो रहा है