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ज़मीं पे आने से साँसों के रूठ जाने तक / अलका मिश्रा
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ज़मीं पे आने से साँसों के रूठ जाने तक
रहे सफ़र में मुसलसल क़ज़ा के शाने तक
जो क़ायनात पे हक़ अपना मान बैठे थे
लो वो भी आ ही गए आख़िरी ठिकाने तक
चमक रही थी मुहब्बत ज़मीन पर दिल की
वफ़ा की धूप पे बादल जफ़ा के छाने तक
रही हैं मुश्किलें सर को कहीं झुकाने तक
सफ़र की गर्द को अपना ख़ुदा बनाने तक
सुना है आप इनायत सभी प' करते हैं
कभी तो आएं हमारे ग़रीब ख़ाने तक
नहीं है उम्र कोई तय किसी भी रिश्ते की
रहेगा साथ कोई सिर्फ़ आज़माने तक