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ज़मीं पे तारे / अमरकांत कुमर
Kavita Kosh से
ज़मीं पर तारे जो झिलमिलाए
कहो तो कैसी ये बात होगी,
मेरे महल में जो चाँद उतरे
कहो तो कैसी वह रात होगी।
ये मस्त ख़ुश्बू, ये भौंर गुंजन
तनुक-सी फुनगी पर फूल-स्पन्दन,
प्रभात बेला, पुनीत वंदन
तेरे नयन का थिरकता खंजन ;
मेरे हृदय में उतर जो जाए
कहो तो कैसी ये बात होगी। ज़मीं पे
स्वच्छन्द वीणा के तार बोले
जो कोई मुक्ति के द्वार खोले ,
मधुर-सा सपना नयन में डोले
कोई जो प्राणों में रस को घोले ;
जो प्रीति-कलिका हृदय खिलाए
कहो तो कैसी ये बात होगी । ज़मीं पे
अनंत आकाश का नील रंजन
तेरे प्रणय का ये गाढ़ बंधन ,
थिरक उठे क्यों ना मोर बन मन
न क्यूँ लगे सिकता स्वर्ण का कण ;
जो रस में मेरा हृदय नहाए
कहो तो कैसी ये बात होगी। ज़मीं पे