भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़मीं रहे न रहे आसमां रहे न रहे / रतन पंडोरवी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
ज़मीं रहे न रहे आसमां रहे न रहे
मकीं की खैर मनाओ मकां रहे न रहे

ज़बीने-शौक़ झुके तो झुकी रहे दाइम
नज़र के सामने गो आस्तां रहे न रहे

कमाले-शौक़ से उस का निशान पैदा कर
रहे-तलाश में तेरा निशां रहे न रहे

बसा लिया है तुझे हम ने दिल की आंखों में
अयाँ रहे न रहे तू निहां रहे न रहे

वो मेहरबाँ है ज़रा अर्ज़-ए-मुद्दआ कर लूं
अजब है क्या कि वो फिर मेहरबाँ रहे न रहे

वो अपने वादे पे खाते तो हैं ख़ुदा की क़सम
किसे ख़बर कि ख़ुदा दरमियाँ रहे न रहे

कटी है उम्र हमारी तो बे निशानी में
बला से मरने पे कोई निशां रहे न रहे

जदीद रंगे-ज़माना से ऐ 'रतन' हम को
गुमां यही है कि उर्दू ज़बां रहे न रहे।