भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़मीं से आँच ज़मीं तोड़कर निकलती है / बशीर बद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज़मीं से आँच ज़मीं तोड़कर निकलती है
अजीब तिश्नगी इन बादलों से बरसी है

मेरी निगाह मुख़ातिब से बात करते हुए
तमाम जिस्म के कपड़े उतार लेती है

सरों पे धूप की गठरी उठाये फिरते हैं
दिलों में जिनके बड़ी सर्द रात होती है

खड़े-खड़े मैं सफ़र कर रहा हूँ बरसों से
ज़मीन पाँव के नीचे कहाँ ठहरती है

बिखर रही है मेरी रात उसके शानों पर
किसी की सुबह मेरे बाज़ुओं में सोती है

हवा के आँख नहीं हाथ और पाँव नहीं
इसीलिए वो सभी रास्तों पे चलती है