ज़मीनें आसमां छूने लगी हैं
हमारी क़ीमतें अब भी वही हैं
शराफ़त इन्तेहा तक दब गई तब
सिमट कर उँगलियाँ मुठ्ठी बनी हैं
तुम्हारे वार ओछे पड़ रहे हैं
मिरी साँसें अभी तक चल रही हैं
बचे फिरते हैं बारिश की नज़र से
बदन इनके भी शायद काग़ज़ी हैं
तिरी यादेँ बहुत भाती हैं लेकिन
हमारी जान लेने पर तुली हैं