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ज़मीने-दिल लरज़ गई ग़ुबार भी उठा तो है / अनु जसरोटिया

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ज़मीने-दिल लरज़ गई ग़ुबार भी उठा तो है
गुज़र के क़ाफ़िला कोई अभी अभी गया तो है

ख़ज़ाँ का दौर है तो क्या बहार है क़रीब अब
कि कोई पात शाख़ पर कहीं कहीं हरा तो है

चमक रहा तो है दिया कोई अंधेरी रात में
जलेंगे और भी दिये चिराग़ इक जला तो है

है रास्ता अटा हुआ ग़ुबार से तो क्या हुआ
ख़ुदा का फिर भी शुक्र है कि कोई रास्ता तो है

वो मुस्कुरा के राह में, कभी कभी मिला मुझे
यक़ीं नहीं करे कोई, मगर ये भी हुआ तो है

वो आएँगे, वो आ गए, वो रूबरू हैं अब मिरे
ये ख्वाब मेरी आँख ने कभी कभी बुना तो है

जो ख़ुद भी एक फूल है गुलाब सा खिला हुआ
वो फूल ले के हाथ में मिरी तरफ़ बढ़ा तो है

नहीं है उस की आँख से छुपी कोई भी बात 'अनु'
ख़ुदाए दो जहाँ हमें फ़लक से देखता तो है।