ज़मीन-दोज़ जो करता है सब दफीनों को
वही तो रखता है महफूज़ आबगीनों को।
खुद अपने हाथ में पतवार सब की रखता है
जो हुक्म देता है चलने का सब सफीनों को
जहां भी पहुंचा ब-जुज़ अपनी ज़ात कुछ भी न था
मैं पार करता गया आगही के ज़ीनों को।
सबा जगाने तो उनको भी रोज़ आती है
बताये कौन अब इन शहर के कमीनों को
खुलूस, दोस्ती, ईसार अब कहां जग में
हमारे अहद ने रुसवा किया है तीनों को।
ठिठक के रह गई सादा-मिज़ाजी फिर घर में
निगाह-ए-शौक़ ने फिर चुन लिया नगीनों को।
इधर उधर के मुबाहिस में उलझे रहते हैं
दिखाये कौन रह-ए-रास्त नुक्ता चीनों को।
ब-वक़्त-ए-इम्तिहां उन का भी हश्र देखा है
जो बार-बार चढ़ाते थर आस्तीनों को।
वो गीता हो कि हो अंजील या कि हो कुरआन
सभी के नूर ने सैकल किया है सीनों को।
तुम अपनी रूह की आवाज़ सुन भी सकते हो
ज़रा खमोश तो होने दो इन मशीनों को।
सहीफ़े आसमां ज़े उतरे होंगे उसके लिए
बुलन्द जिसने किया शेर की ज़मीनों को।
तुम्हारे ज़ेहन में जो दब के रह गये 'तन्हा'
कभी तो लाओ सर-ए-आम उन खज़ीनों को।