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ज़मीन का टुकड़ा / सरोज परमार

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सारी हरियाली निचुड़ आई थी
मेरी आँखों मे
दिल तमाम ख़ुशबूओं का संदूकचा था
जश्न उग आए थे पोर-पोर में
रूह काम धेनु, जिस्म कल्पवृक्ष सा।
दरख़्तों से दूबिया मैदानों तक
चेतना के पँखों पर उड़ना
थी मेरी नियति।
पर्त-दर-पर्त,आकाश फलाँगती
असँख्य तारें,सैंकड़ों चन्दा,
सूरज के गोले
सिमट आए थे मेरी झोली में।
सातों आसमान हो गये थे
मेरी तिजोरी में बन्द ।
हवाओं में डोलती,सोचती
किस ठाँव धरूँ मैं पाँव
त्रिशंकु सी लटक नहीं पाई।
लगी सतह दर सतह समन्दर खंगालने
शँख बटोरने,सीपियाँ खोलने
अमृत-कलश मेरी हथेलियों में।
नहीं ही हो पाई जल की मीन
एक तड़प,बस एक ललक,
किस ठाँव धरूँ मैं पाँव ?
लो ! एक दिन फिर खोज रही थी
जो मेरे पास नहीं था
पाँव टिकाने को, बित्ता भर ज़मीन का
टुकड़ा !