ज़मीन को पाला मार रहा है / शिरीष कुमार मौर्य
अभी कुछ समय पहले ढह पड़ी थी
इसकी उर्वर त्वचा झर गई थी
जो बच गई उसे पाला मार रहा है पहाड़ पर
इस मौसम में कौन-सी फ़सलें होती हैं
मैं भूल गया हूं
जबकि अब भी
सीढ़ीदार कठिन खेतों के बीच ही रहता हूं
फ़र्क़ बस इतना है
कि कल तक मैं उनमें उतर पड़ता था पाँयचे समेटे
अब नौकरी करने जाता हूँ
कच्ची बटियों पर कठिन ऋतुओं के संस्मरण
मुझे याद नहीं
कुछ पक्के रास्ते जीवन में चले आए हैं
मुझे इतना याद है
कि सर्दियों के मौसम को भी ख़ाली नहीं छोड़ते थे
उगा ही लेते थे कुछ न कुछ
कुछ सब्जियाँ कुछ समझदारी से कर ली गई
बेमौसम पैदावार
पर इतना याद होने से कुछ नहीं होता
ज़मीन को पाला मार रहा है या मेरे दिमाग़ को
अगर मेरे जैसे और भी दिमाग़ हुए इस विस्मरण काल में
तो ज़मीन को पाला मार रहा है जैसा वाक्य
कितना भयावह साबित हो सकता है
यह सोच कर पछता रहा हूं
ज़मीन को पाला मारने पर हम घास के पूले खोलकर
सघन बिछा देते थे
नवाँकुरों पर
मैं बहुत बेचैन
दिमाग़ के लिए भी कोई उतनी ही सुरक्षित
और हल्की-हवादार परत खोज रहा हूँ
पनपने का मौसम हो या न हो पर बमुश्किल उग रहे जीवन को
नष्ट होने देना भी
उसकी मृत्यु में सहभागी होना ही होगा ।