भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़मीन चीख़ रही है के आसमान गिरा / 'फ़ज़ा' इब्न-ए-फ़ैज़ी
Kavita Kosh से
ज़मीन चीख़ रही है के आसमान गिरा
ये कैसा बोझ हमारे बदने पे आन गिरा
बहुत सँभाल के रख बे-सबात लम्हों को
ज़रा जो सनकी हवा रेत का मकान गिरा
इस आईने ही में लोगों ने ख़ुद को पहचाना
भला हुआ के मैं चेहरों के दरमियान गिरा
रफ़ीक़-ए-सम्त-ए-सफ़र होगी तो हवा होगी
ये सोच कर न सफ़ीने का बाद-बान गिरा
मैं अपने अहद की ये ताज़गी कहाँ ले जाऊँ
इक एक लफ़्ज़ क़लम से लहूलुहान गिरा
क़रीब ओ दूर कोई शोला-ए-नवा भी नहीं
ये किन अँधेरों में हाथों शम्मा-दान गिरा
‘फ़ज़ा’ को तोड़ तो फेंका हवाओं ने लेकिन
ये फूल अपनी ही शाख़ों के दरमियान गिरा