भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़मीन / सुरेश यादव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मेरी कविताओं की ज़मीन
उस आदमी के भीतर का धीरज है
छिन चुकी है
जिसके पावों की ज़मीन
भुरभुरा-उर्वर किये है
इस ज़मीन को
हरियाते घावों की दुखन
इस ज़मीन का रंग
खून का रंग है
इस ज़मीन की गंध
देह की गंध है
इस ज़मीन का दर्द
आदमी का दर्द है
कुछ नहीं होता जब
ज़मीन पर
तब दर्द की फसल होती है
मैं इसी फसल को
बार बार काटता हूँ
बार बार बोता हूँ
आदमी के रिश्ते को
इस तरह कविता में ढ़ोता हूँ
आदमी को कभी नहीं खोता हूँ।