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ज़मी पैर नीचे न है जानता है / सूर्यपाल सिंह

ज़मी पैर नीचे न है जानता है।
उड़ा पंख फैला कहाँ मानता है?

भ्रमित है स्वयं ताकतों से परों केे,
नया हौसला आसमां छानता है।

यक़ीं ही नहीं है कि वह भी गिरेगा,
अभी रोज़ तम्बू नया तानता है।

भला कौन उड़ता हमेषा गगन में?
धरा पर कभी लौटना? जानता है।

गढ़ा स्वप्न झूठा कहीं आदमी ने,
वही ले उड़ा है, न भय मानता है।