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ज़रा-ज़रा-सी बातों को ले / नईम
Kavita Kosh से
ज़रा-ज़रा-सी बातों को ले-
क्यों आ जाते वो अपनी पर?
गौरैया, बुलबुल, कपोत का ये समाज है,
किंतु जिसे देखा वो आधापौन बाज है;
क्या ऐसी आ पड़ी सभी जामे से बाहर-
अपनी पर आ जाने का ये क्या रिवाज़ है?
पोषाख़ों, बागों की बातें
मरती हैं आकर कफ़नी पर।
सावित्री मर जाए अगर पति के मरने से,
अगर बरज दे धरती भी धारण करने से;
तब क्या होगा धैर्य, क्रोध, करुणा, ममता का?
हाथ नहीं आएगा कुछ आहें भरने से;
तुम, तू, तेरी से चलकर क्यों-
आ जाते वो माँ-बहिनी पर?
क्या बतलाएँ, ओछा क़द बौनी काठी है,
अस्तित्वों का संकट है, आपाथापी है।
मरी खाल पर चलनी थी जो संस्कार से-
वह अब जीवित खालों पर चलती राँपी है।
शर्मोहया धँस गई सिया-सी-
लानत, थू, कथनी-करनी पर।