भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़रा-ज़रा -सा / सुनीता जैन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जी में जी खुलता है
ज़रा-ज़रा-सा

फागुन ऋतु का बौर
हवा घुलता है
ज़रा-ज़रा-सा

गेरू रंग मधुमाखी है
रंग पीलाततै-
य्या जहरीला
तितली के तो रंग गिनूँ क्या
हर रंग ही चट-
कीला

अंतस में ज्वार उमड़ता
कहाँ कहाँ का
ज़रा-ज़रा-सा