भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़रा और भी कुछ निखर जाऊँ मैं / गोविन्द राकेश
Kavita Kosh से
ज़रा और भी कुछ निखर जाऊँ मैं
सभी के दिलों में उतर जाऊँ मैं
जिधर खार ही फूल-सा लग रहा
उसी रास्ते से गुज़र जाऊँ मैं
है शह्र हर तरफ़ पत्थरों-सा यहाँ
तभी सोचता हॅू किघर जाऊँ मैं
मिला देवता मंदिरों में नहीं
इबादत करूँ या कि घर जाऊँ मैं
मेरे झूठ ने चोट दी है उसे
ज़रा बोलकर सच सुधर जाऊँ मैं