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ज़रा झाँक कर ख़ुद से बाहर तो देखो / द्विजेन्द्र 'द्विज'
Kavita Kosh से
ज़रा झाँक कर ख़ुद से बाहर तो देखो
ज़माने से रिश्ता बना कर तो देखो
ज़माना करे दोस्ती कैसे तुमसे
ज़रा अपने हाथों में ख़ंजर तो देखो
यही उनकी हिम्मत के बाक़ी निशाँ हैं
परिंदों के तुम ये कटे ‘पर’ तो देखो
बचाया भला कैसे ईमान उसने
सम्हाला है कैसे ये ज़ेवर तो देखो !
अँधेरा भी कहने लगा अब क़लम से
‘कभी तुम कोई शोख़ मंज़र तो देखो ’
उड़े अम्न का जो थे पैग़ाम लेकर
कहाँ गुम हुए वो कबूतर तो देखो
चले हो हक़ीक़त बयाँ करने ‘द्विज’! तुम
ये चेहरे पे अपने पुता डर तो देखो