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ज़रा ठहरो-एक / सुदर्शन वशिष्ठ

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मेज़ से कचरा उठा लूँ
सहेज़ लूँ बिखरे क़ाग़ज़
मन में मची उधेड़ बुन मेमोरीमें दाल लूँ।

अरे, कपड़े तो ढंग से टाँग लूँ
फेंक लूँ मैली जुराबें बाथरूम में
एकदम आया चिड़िचड़ापन रोक
मन के अनजान कोने में स्टोर कर लूँ।

कहीं दो ग़ज़ ज़मीन तो ले लूँ
देख लूँ अपने हिस्से का आसमान।

कर लूँ इक गुफा का निर्माण
सब कुछ दिखता है सामने समने
इक पर्दा तो कर लूँ।

याद कर लूँ अपने पुरखों को
इक बार घर तो हो लूँ
पहचान लूँ भाई बन्धवों के
अधखिले गुलाब के बच्चे।
परिवारजनों से टिक कर
आराम से कुछ बातें तो कर लूँ।
पूछ लूँ बहन से सास का हाल
एक बार चैन से खाना तो खा लूँ।
जरा हाथ मुँह धो लूँ
दो घूँट चाय पी लूँ
पीठ टेक जरा सुस्ता लूँ।

टी वी से हैडलाईन तो सुन लूँ
देख लूँ मौसम का मिजाज़
छाता तो ले लूँ
थक गया ह्ऊँ चल-चल कर
गुनगुनी धूप में
आँखे बन्द कर कुछ आराम कर लूँ।


अभी अभी कविता आई है
काग़ज़ पर उतार लूँ
कहानी अधूरी पड़ी है
कुछ तो पूरी कर लूँ
घड़ लूँ कोई नया पात्र
जो मिलता जुलता हो मुझसे।

सरकार में रह कर
एकाध नेक काम कर तो लूँ
अपनी नौकरी पूरी कर लूँ
एकध पैंशन ले लूँ।

क्ओ
कुछ तो कर लूँ।
कोई नहीं चाहता चलना
यकदम उसी पल
सभी को
रहता है कुछ न कुछ
माँ भी तो कहती है
बच्चे को दूध पिला लूँ
हमेशा रहता है
कोई न कोई काम बकाया
इसलिये दोस्त
ज़रा ठहरो
कुछ तो कर लूँ
फिर चलूँ
जहाँ तुम कहो ।