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ज़रा सी बात आ गई जुदाई तक / शाज़ तमकनत
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ज़रा सी बात आ गई जुदाई तक
हँसी ने छोड़ दिया ला के जग-हँसी तक
भले से अब कोई तेरी भलाई गँवाए
के मैं ने चाहा था तुझ को तेरी बुराई तक
तू चुपके चुपके मुरव्वत से क्यूँ बिछड़ता है
मेरा ग़ुरूर भी था तेरी कज-अदाई तक
मुझे तो अपनी नदामत की दाद भी न मिली
मैं उस के साथ रहा अपनी ना-रसाई तक
इस आईना का तो अब रेज़ा रेज़ा चुभता है
ये आईना जिसे तकती रही ख़ुदाई तक
ये हादसा है मेरे ज़ब्त-ए-हाल के हाथों
सफ़ेद हो गई कागज़ पे रौशनाई तक
पुकारती रहीं आँखें चला गया है कोई
वो इक सुकूत था आवाज़ से दुहाई तक
निकल के देखा क़फ़स से तो आँख भर आई
वो फ़स्ल-ए-गुल के खड़ी थी मेरी रिहाई तक
ग़ज़ब है टूट के चाहा था ‘शाज़’ ने जिस को
सुना ये रस्म भी थी सूरत-आश्नाई तक