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ज़रा सी बात पे दिल से बिगाड़ आया हूँ / जमाल एहसानी

ज़रा सी बात पे दिल से बिगाड़ आया हूँ
बना बनाया हुआ घर उजाड़ आया हूँ

वो इंतिक़ाम की आतिश थी मेरे सीने में
मिला न कोई तो ख़ुद को पिछाड़ आया हूँ

मैं इस जहान की क़िस्मत बदलने निकला था
और अपने हाथ का लिखा ही फाड़ आया हूँ

अब अपने दूसरे फेरे के इंतिज़ार में हूँ
जहाँ जहाँ मिरे दुश्मन हैं ताड़ आया हूँ

मैं उस गली में गया और दिल ओ निगाह समेत
‘जमाल’ जेब में जो कुछ था झाड़ आया हूँ