ज़रूरी काम / सुनील श्रीवास्तव
पानी तो ठीक वक़्त पर आया था नल में
साढ़े तीन बजे
बीस मिनट के लिए
उसे धोने थे दोपहर के जूठे बरतन
दो-चार कपड़े बच्चों के
और फिर दो बड़ी-बड़ी बाल्टियों को भरकर
रख देना था
सुबह चार बजे तक के लिए
अभी किसका फोन?
चौंकी वह देख भाई का नम्बर
अरे, उसे तो जाना था घर आज
बितानी थी एक रात और आधा दिन
पुश्तैनी घर में
फिर लौट जाना था महानगर
पत्नी-बच्चों के पास
अभी कल ही तो हुई थी बात
“क्या हुआ” — पूछा फ़ोन उठाते ही
“कुछ नहीं, इसी तरह
बिजी हो क्या” — भाई बोला
“हाँ, थोड़ी हूँ
बात करेंगे शाम को”
पर पूछ ही लिया फोन रखते-रखते —
“कैसा लग रहा घर में”
“महक रहा घर सारा” — उत्तर मिला
“बरसात का मौसम है न
बन्द पड़ा घर महकेगा ही”
— लगा उसे फ़ोन रखते वक़्त
बरतन धोते हुए उसे याद आया
यादें भी तो महक रही होंगी घर में
हाते में घुसते ही पहले
उसे गेंदे के फूल महके होंगे
पके अमरूद महके होंगे
हालाँकि होंगी वहाँ सिर्फ़ घासें ही
बड़ी-बड़ी घासें
कमरे में आकर वह
देर तक देखता रहा होगा
माँ की तस्वीर
माँ की महक भी तो होगी घर में
ओसारे से गुज़रते हुए
उसे चूहानी महकी होगी
मोटी लाल सिंकीं मकुनियाँ महकी होंगी
छत पर वह ज़रूर गया होगा
उसे नौ अदृश्य चौखट्टे महके होंगे
छिती तिती महकी होगा
शाम को लालटेन जलाकर
पढ़ना - पढ़ाना महका होगा
बिस्तर पर लेटते हुए
एक ज़िद महकी होगी
ईया के पास सोने की
लड़ाई भी महकी होगी
अन्तहीन कहानियाँ महकी होंगी
तुतले गीत महके होंगे
नसीहतें महकी होंगी
दोनो तरफ़ देखकर सड़क पार करने की
घर जल्दी लौटने की
हिदायतें महकी होंगी
और फिर बेचैन हो गई
यह सोचकर वह
कहीं शाम तक बन्द न हो जाए
भाई को महकना यह सब
उसे भी तो निपटाने हैं ज़रूरी काम ।