ज़र्द गुलाबों की ख़ातिर भी रोता है / ज़हीर रहमती

ज़र्द गुलाबों की ख़ातिर भी रोता है
कौन यहाँ पर मैले कपड़े धोता है

जिस के दिल में हरयाली सी होती है
सब के सर का बोझ वही तो ढ़ोता है

सतही लोगों में गहराई होती है
ये डूबे तो पानी गहरा होता है

सदियों में कोई एक मोहब्बत होती है
बाक़ी तो सब खेल तमाशा होता है

दुख होता है वक़्त-ए-रवाँ के ठहरने से
ख़ुश होने को वही बहाना होता है

शरमाते रहते हैं गहरे लोग सभी
दरिया भी तो पानी पानी होता है

नूर टपकता है ज़ालिम के चेहरे से
देखो तो लगता है कोई सोता है

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