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ज़र्रा-ज़र्रा ज़मीं का रोता है / पुरुषोत्तम 'यक़ीन'
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ज़र्रा-ज़र्रा ज़मीं का रोता है
आसमाँ लम्बी तान सोता है
कोई अपना नहीं हो पास अगर
आदमी क्यूँ उदास होता है
उठती है इस की उँगली उस की तरफ़
अपनी कालर न कोई धोता है
आप मुजरिम को दे सके न सज़ा
इस को दीजे ये उस का पोता है
जो भी आक़ा कहें ये दुहरा दे
दूरदर्शन है ये कि तोता है
जिस से फ़ूटे है बेल नफ़रत की
आदमी क्यूँ वो बीज बोता है
क्यूँ है दुश्वारियाँ 'यक़ीन' इतनी
हर कोई ज़िंदगी को ढोता है