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ज़वाल के आईने में ज़िंदा अक्स / सईद अहमद
Kavita Kosh से
झुटपुटे के शहर में
बेगानगी की लहर में
मादूम होती रौशनी के दरमियाँ
ज़ीस्त के पाँव तले आए हुए
लोग हैं या च्यूंटियाँ
तन बदन की रेहल पर
मोहमल किताबें ज़र्द चेहरों की खुलीं
मंज़रों की खोजती बीनाइयाँ माज़ूर हैं
याद रखने की तमन्ना
भूलने की आरज़ू
हाफ़िज़े की बंद मुट्ठी में ठहरता कुछ नहीं
हर क़दम ख़्वाब ओ ख़याल वस्ल की लज़्ज़त लिए
ज़ात के नीले समुंदर में कहीं
इन जज़ीरों की हवा में साँस लेते जो मुकद्दर में नहीं
ढूँढते हैं कश्तियों का रास्ता
हर सुब्ह के अख़बार में
ख़ुद-कलामी की सड़क पर दूर तक
(लड़खड़ाते ज़र्द पत्तों की तरह)
खोलते हैं कशमकश की गठरियाँ
खुलती नहीं
भीगते हैं तेज़ बारिश में नदामत की मगर
रूह की आलूदगी धुलती नहीं