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ज़हराब पीने वाले अमर हो के रह गए / 'वामिक़' जौनपुरी

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ज़हराब पीने वाले अमर हो के रह गए
नैसां के चंद क़तरे गुहर हो के रह गए

अह्ल-ए-जुनूं वो क्या हुए जिन के बग़ैर हम
अह्ल-ए-ख़िरद के दस्त निगर हो के रह गए

सहरा गए तो शहर में इक शोर मच गया
जब लौट आए शहर बदर हो के रह गए

उम्मीद के हुबाबों पे उगते रहे महल
झोंका सा एक आया खण्डर हो के रह गए

राहों पे दौड़ते रहे आतिश ब-जेर-ए-पा
मंज़िल मिली तो ख़ाक बसर हो के रह गए

आवारा-गर्द मिस्ल बगोलों के हम रहे
बैठे तो गर्द-ए-राहगुज़र हो के रह गए

बढ़ते रहे सराबों पे मानिंद-ए-तिश्नगी
पानी मिला तो ख़ुश्क शजर हो के रह गए

नज़रें तलाश-ए-हुस्न में जा पहुँचीं तो उफ़क़
जलवे तमाम हद्द-ए-नज़र हो के रह गए

पांबदियों में थे तो दिखाते थे मोजज़े
आज़ादियों में शोबदा-गर हो के रह गए

ढाले गए तो पत्थरों से फूट निकले राग
तोड़े गए तो रक़्स-ए-शरर हो के रह गए

चंग ओ रूबाब में रहे मानिंद-ए-नग़मगी
तेग़ ओ सिनां में सीना सिपर हो के रह गए

मुँह जितने उतनी बातें कहीं जा रहीं हैं आज
यूँ मुश्तहर हुए कि ख़बर हो के रह गए

‘वामिक़’ दो-धारी तेग़ है वो लहजा-ए-जदीद
नग़मे तमाम ख़ून में तर हो के रह गए