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ज़हर-ए-चश्म-ए-साक़ी में कुछ अजीब मस्ती है / 'रविश' सिद्दीक़ी

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ज़हर-ए-चश्म-ए-साक़ी में कुछ अजीब मस्ती है
ग़र्क़ कुफ्र ओ ईमाँ हैं दौर-ए-मै-परस्ती है

शम्अ है सर-ए-महफ़िल कुछ कहा नहीं जाता
शोला-ए-ज़बाँ ले कर बात को तरसती है

ज़ुल्फ़-ए-यार की ज़द में दैर भी है काबा भी
ये घटा जब उठती है दूर तक बरसती है

आज अपनी महफिल में है बला का सन्नाटा
दर्द है न तस्कीं है होश में न मस्ती है

कौन जा के समझाए ख़ुद-परस्त दुनिया को
क्या सनम-परस्ती है क्या ख़ुदा-परस्ती है

सख़्त जान-लेवा है सादगी मोहब्बत की
ज़हर की कसौटी पर ज़िंदगी को कसती है

हम तो रह के दिल्ली में ढूँढते हैं दिल्ली को
पूछिए ‘रविश’ किस से क्या यही वो बस्ती है