ज़ात की काल कोठरी से आख़िरी नश्रिया / सईद अहमद
अब कोई सहरा न ऊँटों की क़तारें
घंटियाँ सी जगमगाती ख़्वाहिशों की
ध्यान के कोहरे में लिपटी
गुनगुनाती हैं मगर मिज़राब-ए-आइंदा के सफ़र के
रास्तों के साज़ से नाराज़ हैं
मैं उसी अंधी गली की क़ब्र में मरने लगा
भाग निकली थी जहाँ से
ज़ीस्त पैदाइश के दुख दे कर मुझे
आँख से चिपके नज़ारों के हज़ारों दाग़ हैं
जो वक़्त की बारिश से भी धुलते नहीं
कौन सी दीवार में रख्ने हैं कितने
कौन दरवाज़ों को कैसी चाट दीमक की लगी हैं
कौन सी छत तक किसी ने
सीढ़ियों में ठोकरें कितनी रखी हैं
हर कहानी याद है
सुन मिरे हम-ज़ाद सुन!
ज़िंदगी के खोज में अब
हिजरतें वाजिब हैं लेकिन
सरहदों से मावरा हैं
या हवाएँ या सदाएँ या परिंदे
मैं तमन्ना के जहाज़ों का मुसाफ़िर
या पासर्पोटो और विज़ों के एअर पॉकेट डराते हैं मुझे