ज़ाहिर है / सिर्गेय येसेनिन / वरयाम सिंह
ज़ाहिर है ऐसा ही चलता आ रहा है ज़माने से --
पगला जाते हैं हम तीस बरस से पहले-पहले
हम अपाहिज ज़्यादा ज़ोर से
जोड़े रखते हैं रिश्ता ज़िन्दगी से ।
प्रिय, जल्द ही मैं भी हो जाऊँगा तीस का
दिन-ब-दिन प्रिय लग रही है यह धरती
इसीलिए सपनों में देखता है दिल
कि जल रहा हूँ मैं गुलाबी आग में ।
जलना ही है तो जल लूँगा पूरी तरह
लाइम वृक्ष के फूलों के बीच मैंने
तोते से छीनी है यह अँगूठी --
हम दोनों के साथ जल जाने का संकेत ।
यह अँगूठी पहनाई थी मुझे एक बंजारन ने
अपने हाथ से उतार कर मैंने वह तुझे दी
पर अब जब उदास पड़ा है बाजा
रहा नहीं जा रहा कुछ सोचे शरमाए बिना ।
बहुत गहरी है दिमाग़ की दलदल
और हृदय में है पाला और अन्धकार :
सम्भव है तुमने किसी दूसरे को
पहना डाली हो वह अँगूठी ।
सम्भव है सुबह तक चूमते हुए
वह स्वयं तुझसे पूछता होगा --
किस तरह हास्यास्पद मूर्ख कवि को
पहुँचाया तूने कामुक कविताओं तक ।
ठीक है, तो क्या ! भर जाएगा यह घाव भी
पर दुख होता है जीवन का अन्त देख कर ।
ज़िन्दगी में इस अड़ियल कवि ने
किसी तोते से धोखा खाया है पहली बार ।