भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़िंदगी किस मक़ाम से गुज़री / महेश चंद्र 'नक्श'
Kavita Kosh से
ज़िंदगी किस मक़ाम से गुज़री
हसरत-ए-नंग-ओ-नाम से गुज़री
ख़ूब आपस में जाम टकराए
शाम इस एहतिमाम से गुज़री
जाने वो थे के मेरा हुस्न-ए-ख़याल
इक तजल्ली सी बाम से गुज़री
कोई रह-रू न कोई रह-बर था
जुस्तुजू जिस मक़ाम से गुज़री
वादी-ए-मर्ग से गुज़र कर ‘नक्श’
रूह सोज़-ए-दवाम से गुज़री