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ज़िंदगी की अजब हैं मटरगश्तियाँ / सूरज राय 'सूरज'

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दूर करतीं है अपनों को नज़दीकियाँ।
पास रखती हैं रिश्तों को ये दूरियाँ

ज़िंदगी की मटरगश्तियाँ हैं अजब।
धूप की है नदी बर्फ़ की कश्तियाँ।

झूठ मक्कारियाँ जुर्म छल साज़िशें
आ गए हम किधर और चले थे कहाँ॥

फूल काग़ज़ के सड़कों में बिकने लगे
बैठने अब लगीं ख़ार पर तितलियाँ॥

दर्दो-मैं घण्टों चुपचाप बैठे रहे
कोई था जो कि चुभता रहा दरमियाँ॥

घुप अँधेरे में एहसासे-परछाईं उफ़
क्या यहाँ पर उजालों की थी बस्तियाँ॥

सांप बनके हमे ही वह डसने लगीं
हमने दहशत की फेंकी थीं जो रस्सियाँ॥

हाड़ के जिस्म संसद में बिखरे हुए
जिनपे लकड़ी की बैठी हुई कुर्सियाँ॥

उतने तो आसमानों में तारे नहीं
कोख़ में जितनी मारी गयीं बच्चियाँ॥

दिल की गंगा है ये ऐ ग़ लु ामे-ज़हन
अब विसर्जित भी कर तर्क की अस्थियाँ॥

इस शहर में कोई सर उठाता नहीं
जब से आया हूँ बस उठ रहीं उँगलियाँ॥

ऐ मेरे यार मुझको नकारा न कर
ज़ ुल्ु म लगने लगीं अब मेंहरबानियाँ॥

कुछ वजह तो है जो रीढ़ में है लचक
वरना हैं जिस्म में दो सौ छः हड्डियाँ॥

जी सकेगा तू "सूरज" बता किस तरह
कोई तुझसे छुड़ा ले तेरी रश्मियाँ॥