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ज़िंदगी की रफ्तार बंद / संध्या रिआज़
Kavita Kosh से
कुछ दिनों से ऐसा लगता है
कि कई साल बिता दिये बेवजह जीते-जीते
बहुत कुछ किया पर क्या था वो
कहां गया कुछ पता नहीं
सुबह से षाम और षाम से सुबह तक
सालों जीते रहे हैं
कोल्हू के बैल से आंखों में पट्टी बांध
हम भी घूमते रहे हैं
एक ही धुरी पे घूमते-घूमते
सोच हो गई बंद
सेच बंद तो एहसास बंद
ज़िन्दगी की रफ्तार बंद
कुछ ही समय बाकी है
सूरज के ढलने में
अब कोई षिकवा नहीं षिकायत नहीं
रूठना और मनाना नहीं
अब न दुःख न दिल दुखाने वाली बातें होगी
न हम होंगे न हमारी यादें होंगी ........
भूल जायेंगे सब धीरे-धीरे
पाकर खोते-खोकर पाते
कहां से कहां पहुंचे हम जीते जीते
कुछ दिन यादों के संग आयेंगे हम
सालोें बीते तो कुछ याद न आयेगा
मालूम है हमें जो हम गए
हमारा नाम भी मिट जाएगा