भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़िंदगी के सराब भी देखूँ / 'रसा' चुग़ताई

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज़िंदगी के सराब भी देखूँ
नींद आए तो ख़्वाब भी देखूँ

रात काटूँ किसी ख़राबे में
मुँह अँधेरे गुलाब भी देखूँ

हर्फ़-ए-ताज़ा वरक़ वरक़ लिक्खूँ
सादा दिल की किताब भी देखूँ

डूब जाऊँ किसी समंदर में
फिर जज़ीरों के ख़्वाब भी देखूँ

ज़िंदगी में हिमाक़तें भी करूँ
उस का फिर सद्द-ए-बाब भी देखूँ

आज दिल की बयाज़ में लिख कर
लफ़्ज़ ख़ाना-ख़राब भी देखूँ

प्यास दिल की बुझाऊँ आँखों से
रक़्स करते हबाब भी देखूँ