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ज़िंदगी में पहले इतनी तो परेशानी न थी / मलिकज़ादा 'मंजूर'
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ज़िंदगी में पहले इतनी तो परेशानी न थी
तंग-दामनी थी लेकिन चाक-दामानी न थी
जाम ख़ाली थे मगर मै-ख़ाना तो आबाद था
चश्म-ए-साक़ी में तग़ाफ़ुल था पशेमानी न थी
ग़ाज़ा-ए-ग़म एक था थे सब के चेहरे मुख़्तलिफ़
ग़ौर से देखा तो कोई शक्ल अनजानी न थी
जिन सफ़ीनों ने कभी तोड़ा था मौजों का ग़ुरूर
उस जगह डूबे जहाँ दरिया में तुग़्यानी न थी
तुझ से उम्मीद-ए-वफ़ा ख़्वाब-ए-परेशां तो न थी
बे-वफ़ा उम्र-ए-गुरेज़ाँ थी के तूलानी न थी
पढ़ चुका अपनी ग़ज़ल ‘मंजूर’ तो ऐसा लगा
मर्सिया था दौर-ए-हाज़िर का ग़ज़ल-ख़्वानी न थी