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ज़िंदगी रोज़ आज़माती है / अर्चना अर्चन
Kavita Kosh से
बस यही बात दिल दुखाती है
ज़िंदगी रोज़ आज़माती है
रौशनी का शरफचरागों को
जल रही है मगर, वह बाती है
आपकी याद जबसे रूठ गई
शाम तनहा ही बीत जाती है
हिज्र की धूप में तपी उल्फत
चांदनी रात में नहाती है
उसके वादे हैैं सियासी वादे
चार ही दिन में भूल जाती है
दिन मुसाफिर है कब कहाँ ठहरा
रात कैसी हो, बीत जाती है
मौत बेशक दगा नहीं करती
जिंदगी कब वफा निभाती है
बाग सूने, थमे-थमे झूले
माइ लोरी कहाँ सुनाती है
मुद्दतों डाकिया नहीं देखा
उनका पैगाम है, न पाती है
इश्क तो नाम है मसाइल का
देर से बात समझ आती है