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ज़िंदा रहना है तो साँसों का ज़ियाँ और सही / शकील आज़मी

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ज़िंदा रहना है तो साँसों का ज़ियाँ और सही
रौशनी के लिए थोड़ा सा धुआँ और सही

सुब्ह की शर्त पे मंज़ूर हैं रातें हम को
फूल खिलते हों तो कुछ रोज़ ख़ज़ाँ और सही

ख़्वाब ताबीर का हिस्सा है तो सो कर देखें
सच के इदराक में इक शहर-ए-गुमाँ और सही

वो ब्रश और मैं रोता हूँ क़लम से अपने
दर्द तो एक हैं दोनों के ज़बाँ और सही

कट गए अपनी ही मिट्टी से तो जल्दी क्या है
अब ज़मीं और सही और मकाँ और सही