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ज़िक्र उसका न कहीं था मेरे अफ़साने में / कांतिमोहन 'सोज़'

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ज़िक्र उसका न कहीं था मेरे अफ़साने में ।
फिर भी दारोग़ा ने बुलवाया मुझे थाने में ।।

यारो-अग़यार<ref>अपने-पराए</ref> का एक साथ चढ़ा था पारा
ऐसी क्या बात रक़म हो गई परवाने में ।

उसने बन्दूक थमाकर मेरी दिलजोई<ref>तसल्ली</ref> की
आजकल बुत कहां मिलते हैं सनमख़ाने<ref>मन्दिर</ref> में ।

मैं गुनह्गार सही शेख़ समझदार सही
उसका मुझसे वो उलझना भरे मयख़ाने में ।

सारी दुनिया में भटककर तेरे दर पर पहुँचा
किस क़दर होश बचा था तेरे दीवाने में ।

बालाख़ाने<ref>बाल्कनी</ref> में अमीरी की नुमाइश होगी
सारे नादार<ref>ग़रीब</ref> चले जाएँगे तहख़ाने में।

सोज़ हँसके तो कभी बात न की थी उसने
हो न हो कोई कमी थी तेरे नज़राने में ।।

शब्दार्थ
<references/>